बहुत समय पहले की बात है। भारतवर्ष के एक सुंदर और समृद्ध राज्य में एक राजा राज करता था — राजा विक्रमसेन। राजा बहुत ही बुद्धिमान, दयालु और न्यायप्रिय था, परंतु फिर भी उसे सच्चा सुख नहीं मिलता था। महल में ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं थी — सोने-चांदी के बर्तन, रेशमी वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन, सुंदर बाग-बगीचे — सब कुछ था, लेकिन फिर भी राजा का मन अशांत रहता।
एक दिन उसने दरबारियों से कहा, “मैं सच्चे सुख की खोज में जाना चाहता हूँ। जो भी मुझे सच्चा सुख दिला सके, उसे मैं अपना उत्तराधिकारी बना दूँगा।”
सभी दरबारी हैरान थे। उन्होंने राजा को समझाने की कोशिश की, “महाराज, आपके पास सब कुछ है। प्रजा आपसे प्रेम करती है, राज्य समृद्ध है, फिर भी आप अशांत क्यों हैं?”
राजा ने उत्तर दिया, “यह सब बाहरी सुख हैं। मैं आत्मिक संतोष चाहता हूँ।”
अगले दिन, राजा ने एक सामान्य वेश में स्वयं ही यात्रा पर निकलने का निर्णय लिया। वह राजसी वस्त्रों को छोड़कर एक साधारण धोती-कुर्ता पहनकर जंगलों, गांवों और शहरों में घूमने लगे। उन्होंने संत-महात्माओं, व्यापारियों, किसानों, विद्वानों से भेंट की, पर किसी के पास वह उत्तर नहीं था जो राजा को चाहिए था।
एक दिन, वह एक छोटे-से गाँव पहुँचे, जहाँ एक बूढ़ा लकड़हारा अपने परिवार के साथ रहता था। राजा ने देखा कि लकड़हारा दिन भर जंगल से लकड़ी काटता है, फिर उसे बाजार में बेचता है। उससे जो भी थोड़ा-बहुत धन मिलता, वह उसी से अपने परिवार का पालन-पोषण करता। लकड़हारा न ग़रीबी की शिकायत करता था, न ही थकान की।
रात को राजा ने लकड़हारे के साथ भोजन किया — मोटे चावल और उबली हुई सब्ज़ियाँ। भोजन के बाद लकड़हारा मृदु स्वर में भजन गाने लगा और फिर अपने बच्चों को कहानियाँ सुनाते हुए सो गया।
राजा ने पूछा, “तुम इतने कष्टों में भी इतने प्रसन्न कैसे रह सकते हो?”
लकड़हारे ने मुस्कराते हुए कहा, “महाराज, मैं हर उस चीज़ के लिए आभारी हूँ जो ईश्वर ने मुझे दी है। मेरा परिवार स्वस्थ है, मुझे मेहनत करने का अवसर मिलता है और मैं अपनी मेहनत से जीता हूँ। क्या इससे बड़ा सुख कुछ और हो सकता है?”
राजा को उत्तर मिल गया। उन्होंने उस रात खुली आँखों से नींद में सोए — वर्षों बाद उन्हें चैन की नींद आई।
अगली सुबह राजा ने लकड़हारे को प्रणाम किया और कहा, “तुमने मुझे सच्चे सुख का रहस्य सिखा दिया — संतोष और कृतज्ञता। यही सच्चा सुख है।”
राजा अपने राज्य लौट आए और उन्होंने अपने शासन में कई परिवर्तन किए। अब वह हर नागरिक से संवाद करते, उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते और स्वयं भी साधारण जीवन जीने लगे। धीरे-धीरे राज्य और अधिक समृद्ध और शांतिपूर्ण बन गया।
नैतिक शिक्षा:
सच्चा सुख न तो धन में है, न ही वैभव में। वह तो संतोष, प्रेम और कृतज्ञता में है। जो व्यक्ति जो कुछ है, उसमें संतुष्ट रहना सीख लेता है, वही वास्तव में सुखी है।